मैं सिपाही
एक बदनाम राही,
की मै चलता हूँ जिसपे
नही है कोई राह
मौत के दर्द की आह
किसी एक सिपाही का
बदनाम राही का
की जिसपर तानी थी बन्दुक
पहली बार छुटी गोली ,निकली हूक…
था वो दुशमन
जबतक जिन्दा था
पर मार गिराने के बाद ये मन
न जाने क्यों शर्मिंदा था
सोच रहा था, कि
अबतक क्यों जिन्दा था
और क्यों मिला था जीवन
किसीको मारने के लिए
या किसीका सवारने के लिए
पर अब इसी आदत पड़ चुकी है
सायद मेरी आत्मा मर चुकी है
लेकिन नही, ओ कलम वाले
सारी गलती
मेरी ही नहीं है…
तेरी भी कोई भूल
कहीं न कहीं है,
सायद तुम्हें जरूरत है
लाल स्याही की
जो मेरे बहाये खून हैं
तुम्हे जरुरत है…
शब्दों में दर्द की
जो जख्मी सिपाही की चीख हैं
तुम्हारे कलम की ताकत
मेरी बंदूक है,
पर तेरी कलम मेरी बन्दूक को
कमजोर कर रही है,
तुमसे उम्मीद बहुत है
ओ कलम वाले
लिखते रहो हरदम, जबतक है दम
की हर रोज कई,
उम्मीदे मर रही है
गौतम अज्ञानी